Sunday, September 9, 2012

ठाकरे परिवार को दोष क्यों?


ठाकरे परिवार ने अपनी राजनीति चमकाने या अन्य किसी कारण से उत्तर भारतीयों या बिहारियों के खिलाफ फिर से मोर्चा खोल रखा हैं और उत्तर भारतीय नेताओं ने उन्हे निशाने पर ले रखा है। इन सारे विवादों से जो एक बात निकल कर सामने आ रही है वो ये की उत्तर भारतीय नेता हद से ज्यादा ढीठ और बेशरम हो गए हैं, एक जिम्मेदार पिता अपने छोटे बच्चे को भी उस पड़ोसी के घर कभी नहीं जाने देता है जहां उसके बच्चे का सम्मान न हो या उसे डांटा गया हो पर हमारे ये उत्तर भारत के नेतागण उस पड़ोसी से ही लड़ रहे हैं की हम तो अपने लोगों को आपके घर भेजेंगे जो करना हो कर लो जबकि होना ये चाहिए था की यहाँ के नेता कहते कि हम अपने लोगों को अपने यहाँ ही रोजगार के अवसर उपलब्ध कराएंगे जो वापस आना चाहे मुंबई छोडकर आ जाये।

आखिर हमारे इस उत्तर भारत मे किस चीज की कमी है? इतना विशाल क्षेत्रफल जो खनिज संपदावों से भरा हुआ है, भारत की प्रमुख नदियों से सिंचित ये क्षेत्र सदा से कृषि मे उन्नत माना जाता रहा है, बौद्धिक सम्पदा मे तो आज भी कोई तोड़ नहीं है, टॉप क्लास के IAS IPS, डॉ॰, इंजीनियर पैदा करने वाला यह क्षेत्र क्या इतना पंगु हो चुका है की वो अपने लोगों को दो वक्त की रोटी नहीं दे सकता? क्या ये वही उत्तर भारत है जो प्राचीन काल से ही समृद्ध और शक्तिशाली रहा है? मगध, पाटलीपुत्र(पटना), काशी(वाराणसी), अवध, मथुरा आदि जैसे शक्तिशाली और समृद्ध राज्य क्या यहीं थे? नालंदा और काशी जैसे विश्व प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान देने वाला यह क्षेत्र दिनो दिन हर क्षेत्र मे आखिर क्यों पिछड़ता जा रहा है? इन सारे प्रश्नो पर यदि ठीक से विचार किया जाय तो सिर्फ एक ही बात सामने आती है कि इस क्षेत्र ने आजादी के बाद से निकम्मे नेताओं का कुछ ज्यादा ही उत्पादन कर दिया है जो बस भाषण देना, जातिवादी और तुष्टीकरण की राजनीति करना और अपनी जेबें भरना ही जानते हैं, अगर उनमे जरा भी इस क्षेत्र से और यहाँ के लोगों से प्यार होता तो आज यहाँ के हालात ऐसे ना होते क्योंकि यहाँ के अधिकतर नेता राष्ट्रीय क्षवि वाले हैं और ज्यादातर सत्ता मे ही रहते हैं और तो और भारत सरकार का रिमोट जिसके हाथ मे है वो मैडम भी इसी क्षेत्र से हैं।

आजादी के पैंसठ साल बीतने के बाद भी इस क्षेत्र के नेतावों ने आखिर ऐसे प्रयास क्यों नहीं किए कि मुंबई जैसा एक महानगर इस उत्तर भारत या कहें की यूपी, बिहार मे भी बन सके? अगर मुंबई मे बनने वाली हिन्दी फिल्मे उत्तर भारत मे ना देखी जाएँ या उनका निर्माण उत्तर भारत मे करने के उपाय किए जाएँ तो वहाँ की पहचान बन चुके बॉलीवुड का खात्मा हो जाये और सायद मुंबई का ग्लैमर भी, और कुछ हद तक माइग्रेशन पर भी रोक लगे क्योंकि की उत्तर भारत से मुंबई जाने वालों मे से ज़्यादातर लोग बॉलीवुड मे काम करने का सपना ही लेकर जाते हैं। आखिर ये बात तो समझ से परे है कि जब तमिल फ़िल्मे तमिलनाडू मे तेलगु आंध्रा मे, कन्नड कर्नाटक मे मराठी महाराष्ट्र मे पंजाबी पंजाब मे बनती हैं तो हिन्दी फिल्मे महाराष्ट्र मे क्यों बनती हैं?

हम जिस संविधान कि दुहाई देकर भारत मे कहीं भी बसने या काम करने का राग अलापते रहते है क्या हमे उसके दूसरे पहलू पर विचार नहीं करना चाहिए? आखिर हम अपने घर मे किसी को तभी तक रख सकते जब तक हमारे घर मे पर्याप्त जगह हो और हमे आगंतुक से कोई परेशानी ना हो। मुंबई के संदर्भ मे तो ये दोनों बातें लागू होती हैं एक तो अब मराठियों कि आबादी भी काफी बढ़ गयी और उन्हे भी रोजगार के लिए ठोकरें खानी पड़ रही हैं, ऐसे मे जब वो देखता है कि उसके आस पास के ज़्यादातर रोजगार पर उत्तर भारतीयों का कब्जा है तो उसका उग्र होना स्वाभाविक ही है, और दूसरा यूपी, बिहार से मुंबई जाने वालों मे इतने अपराधी किस्म के लोग भी जा रहें जिससे सारे उत्तर भारतीयों कि छवि खराब हो रही है। मुंबई मे जब भी कोई अपराध होता है तो उसका सीधा कनेक्शन बिहार से या यूपी के आजमगढ़ जनपद से निकलता है।

हमें मराठियों या ठाकरे परिवार को दोष देने के बजाय इन बातों पर भी गौर करना चाहिए। अगर हमारे गाँव, शहर, राज्य मे भी बाहरी लोगों या अन्य राज्य वालों की तादात मे बेतहासा बढ़ोत्तरी होगी तो सायद हम भी वैसा ही करेंगे जैसा मराठी लोग या ठाकरे परिवार कर रहा हैं, आज हमें जरूरत है अपनी कमजोरी को समझने और उसे दूर करने के लिए निरंतर प्रयास करने की ना की उसके लिए दूसरों को दोष देने की।
http://www.aawaz-e-hind.in/2012/09/why-thakrey-faimly.html
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Sunday, August 26, 2012

बंग्लादेशी घुसपैठिए और सेकुलर भारतीय

सारे सेकुलर चुप बैठे हैं, देश जल रहा जलने दो।
बंग्लादेशी वोटर अपने, असम मे इनको रहने दो॥
अरबों की आबादी अपनी, उसपर भी सीमित संसाधन।
फिर भी हम खुश होकर करते, बंग्लादेशी का अभिनंदन॥
हिंदुस्तान है चारागाह, इनको भी कुछ चरने दो।
सारे सेकुलर चुप…………………………………………

जगह जगह ये बम फोड़ें, हर देशद्रोह का काम करें।
कट्टरपंथी इनकी खातिर, हर चौराहा जाम करें॥
हिंसक होकर आग लगाएँ, शहीदों का अपमान करें।
राष्ट्रभक्त मुस्लिम को, ऐसी हरकत से बदनाम करें॥
वोटों की इस राजनीति मे, जनता पिसती है पिसने दो।
सारे सेकुलर चुप…………………………………………

पैसठ वर्षो पहले हमने, ऐसा ही कुछ भोगा था।
भारत माँ के टुकड़े करके, इसका एक हल खोजा था॥
बँटवारे का दंश झेलकर, लाखों कत्लेआम देखकर।
क्या पाया है हमने आखिर, कुछ को सरहद पार भेजकर?
जो भी ऐसी बात उठाए, उसको कम्यूनल कहने दो।
सारे सेकुलर चुप…………………………………………

दुनियाभर मे भारत जैसा सॉफ्ट टार्गेट देश नहीं।
गुंडे, चोर, लुटेरे भी, संसद मे मिल जाएँ यहीं॥
खरबों मे घोटाले होते, भ्रष्टाचार चरम पे है।
मंत्री, पीएम, राष्ट्रपति सब, किसी के रहमो करम पे हैं॥
लोकतन्त्र यदि ऐसा है, तो इसकी अर्थी सजने दो।
सारे सेकुलर चुप…………………………………………..


http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/aakros/
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Saturday, September 3, 2011

आरक्षण समानता या विषमता



आरक्षण का जिन्न आजकल फिर चर्चा  में है इसको बाहर लाने का दोषी फिल्म निर्माता प्रकाश  झा जी को ठहराया  जा रहा है पर इसमें शायद उनका उपनाम “झा” ही दोषी है जो संभवतः अगड़े वर्ग से है, जबिक वो शहर -शहर  घूमकर सबको समझा रहे हैं की ये फिल्म  समाज के किसी भी वर्ग या आरक्षण के खिलाफ  नहीं है, पर उनकी बात  पर किसी को विस्वास  नहीं, जबिक सेंसर बोर्ड  उनकी इस फिल्म  को प्रदर्शन  की अनुमित दे चुका है जाहिर है सेंसर बोर्ड ने खूब सोच विचार के बाद ही अनुमित दी होगी पर कुछ लोगों को अपनी राजनीती  चमकानी है तो उनको तो मुद्दा मिल गया है। पर मुझे एक बात समझ में नहीं आती की अगर किसी  दलित  या मुस्लिम   ने इस फिल्म  का निर्माण किया होता क्या तो भी इतना ही विरोध  होता?
अब रही बात आरक्षण के सही या गलत होने की तो कु छ लोग तर्क  देते हैं की दलितों का २५०० साल तक उत्पीडन  किया  गया है, तो क्या हिन्दुस्तान में पिछले २५०० सालों में कोई भी न्यायप्रिय  राजा या शासक आजके हमारे भ्रष्ट नेतावों जैसा भी संवेदनशील नहीं रहा है, जिसको दिखता की दलितों के साथ अन्याय हो रहा है, जबकि  इस दौरान ज्यादातर शासन मुसलमानों और अंग्रेजों का रहा है, जिसकी हमारा दलित समाज बहुत इज्जत करता है और एक महानुभाव तो “अंग्रेजी देवी मैया” का मंदिर  भी बनवा चुके हैं। फिर भी कुछ लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर दलितों की  सारी परेशानियों का दोष तथाकिथत समाज के अगड़े वर्गों (सवर्णों) को देते हैं जो की खुद इस दौरान प्रताड़ित होते  रहे हैं और आजादी के बाद तो शायद और भी प्रताड़ित किये जा रहे हैं। हमारी सरकारें इन तथाकिथत (सवर्णों) के साथ इस तरह से व्यवहार कर रही हैं जैसे ये वर्ग किसी और देश के नागिरक हों या किसी अन्य ग्रह से आये हों।
डॉ अम्बेडकर ने संविधान में आरक्षण का प्राविधान सिर्फ १० वर्षों के लिए किया था वो भी सिर्फ दलितों के लिए पर  आज राजनीति और वोट बैंक के चलते आरक्षण अनंत काल की यात्रा  पर है, और इसमें उन वर्गों  को भी शामिल  कर लिया गया है जो शायद इन तथाकिथत अगड़े वर्गों  से कई गुना ज्यादा आगे हैं, और अब तो मुसलमानों को भी आरक्षण देने की  बात चल रही है, उन मुसलमानों को जिसने १००० साल तक हिन्दुस्तान  पर राज किया फिर  भी आज वो पिछड़े  हैं?
और हमारी सरकारों को सबसे ज्यादा सम्पन्न ब्रह्मण, राजपूत या अन्य सवर्ण दिखते हैं, ये कितने सम्पन्न हैं ये देखने के लिए किसी भी सरकार के पास कोई “खच्चर कमेटी” नहीं वर्ना वो इन वर्गों का सर्वे कराती तो पता चलता की ये वर्ग भी उसी  तरह भूख, बीमारी, बेरोजगारी तथा अन्य प्रकार की  सामाजिक  और आर्थिक  समस्याओं से घिरा हुआ  है जिस प्रकार  अन्य वर्ग  पर सरकार तो २-४ अगड़े वर्गों  के बड़े नामो से अंदाजा लगा लेती है की ये वर्ग  सबसे आगे हैं, तभी तो सुप्रीम कोर्ट  के निर्देश के बावजूद भी आरक्षण की सीमा ५०% से ऊपर पहुँच चुकी है और अभी  १५% मुसलमानों को भी देने की  बात चल रही है, जबिक पहले से ही इस आरक्षण का लाभ ऐसे लोगों को मिल  रहा है जो समाज में काफी आगे निकल चुके हैं। क्या किसी  ने कभी इस पर विचार  किया कि जातिगत  आरक्षण के कारण जो एक बार आरक्षण का लाभ लेकर आगे बढ चुके हैं उनको आगे ये लाभ न लेने दिया जाय? अगर एक ही परिवार  को आरक्षण का लाभ बार -बार मिलेगा
तो क्या ये आरक्षण की मूलधारणा के अनुरूप है? जब करोडो तथाकथित सवर्ण गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहें हों तो क्या जातिगत आरक्षण उचित है, ये तो शायद उन दलितों  के साथ भी नाइंसाफी है जिसको अभी तक  एक बार भी आरक्षण का लाभ नहीं मिला, पर आरक्षण का नाम लेना शायद अयोध्या में मंदिर बनाने की बात करने  जैसा संवेदनशील मुद्दा हो गया है जिस  पर सही या गलत कुछ भी नहीं बोला जा सकता।
वैसे मेरा तो मानना है की  आरक्षण को पूरी तरह से ख़त्म कर देना चाहिए  और संसद में कानून बनाकर इन तथाकिथत सवर्णों  को किसी  भी सरकारी या गैरसरकारी पद के लिए  अयोग्य घोषित  करके जो भी सरकारी या गैरसरकारी पद हैं  उनको मुसलमानों, दलितों तथा अन्य पिछड़े  वर्गों  में बाँट देना चाहिए  और सारे सवर्णों  को अछूत घोषित करके दलितों और मुश्लिमों को ये हक़ देना चाहिये की वो  सवर्णों को अपने यहाँ दास बनाकर रख सकते हैं, उनसे बेगारी करा सकते हैं,
उनको भी मैला ढोने पर विवश कर सकते हैं, आखिर तभी तो समाज में बदलाव आएगा और दलित समाज भी सिर उठाके  चल सकेगा। हालाँकि सरकार की नीतियां  इसी ओर अग्रसित हैं पर इसमें थोड़ी और तेजी लाने की जरुरत है………

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अन्ना का अनशन और सरकार की कुटिलता


अन्ना के अनशन का आज दसवां दिन है पर सरकार अब तानाशाही रवैया अपनाती हुई दिख रही है , लाखों करोड़ो लोग सड़कों पर है, हर गली मोहल्ले में प्रदर्शन हो रहे हैं पर हमारे नेतागण इतने बड़े आन्दोलन में आन्दोलनकारियों की जाति और उनका धर्म तलाशने में जुटे है, कहीं ये बताया जा रहा है की यह दलितों का आन्दोलन नहीं है, तो कहीं बताया जा रहा है की इसमें मुस्लिम शामिल नहीं है। पहले तो सरकार इस आन्दोलन को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का आन्दोलन बता कर लोगों को बाँटना चाह रही थी पर जब उसमें असफल रही तो इमाम बुखारी का सहारा लेकर आन्दोलनकारियों को बांटने की कोशिश कर रही है, नहीं तो बुखारी को इस समय यह कहने की क्या आवश्यकता थी की “वन्दे मातरम” और “भारत माता की जय” इस्लाम विरोधी हैं, आखिर अन्ना जी के आन्दोलन की यह कोई बाध्यता तो है नहीं कि जो इसमें शामिल होगा उसको ये नारे लगाने ही पड़ेगें, ये तो आन्दोलनकारियों कि स्वेच्छा पर है कि वो कौन से नारे लगाएगा, फिर भी शायद पहली बार मुसलमानो ने इन कुटिल नेतावों और इस्लाम के पहरेदारों को कोई अहमियत नहीं दी और आन्दोलन में उसी तरह शामिल हुए जैसे अन्य धर्मं के लोग जो शायद भारतीय समाज और इसके भविष्य के लिए एक सुखद अहसास है। अब रही बात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थन की तो ये संगठन तो राष्ट्रहित के अलावा और कोई बात सोचता ही नहीं और उसका मूल उद्देश्य ही इसी तरह मुसलमानों को हिन्दुवों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर राष्ट्रनिर्माण के लिए खड़ा करना है, और अगर ये मान भी लिया जाय की ये आन्दोलन संघ का है तो क्या संघ को राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों पर बोलने का अधिकार नहीं है? क्या हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेतागण संघ से यही उम्मीद करते हैं की उसे सिर्फ मंदिर के समर्थन में और मुसलमानों के खिलाफ ही बोलना चाहिए? जिससे उनको संघ का भय दिखाकर मुस्लिम वोटबैंक तैयार करने में मदद मिल सके? असल बात यही है की ये तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ और नेता ही हिन्दुवों और मुसलमानों में दूरियां बढ़ा रहे हैं उन्हें एक साथ एक मंच पर आने ही नहीं देते क्योंकि अगर ये दोनों एक साथ आ गए तो इनको अपनी राजनीति की दुकान समेटनी पड़ेगी। तभी तो संघ अगर पाकिस्तान के खिलाफ या अफजल गुरु और कसाब जैसे देश के दुश्मनों के खिलाफ भी कुछ बोलता है तो उसे इस तरह प्रदर्शित किया जाता है जैसे वो सारे मुसलमानों के विरोध में बोल रहा हो, पर अन्ना जी के आन्दोलन से ये बात अब सामने  आ गयी है हमारे देश का मुस्लिम वर्ग इतना नादान नहीं है, की वो इन कुटिल नेतावों पर आँख बंद करके भरोसा करे। जो सरकार भ्रष्टाचार जैसे जनहित से जुड़े हुए मुद्दे पर इतनी निष्ठुर बनी हुई है की एक 74 साल के वृद्ध व्यक्ति के 11-12 दिन के उपवास के बाद भी अभी तक किसी फैसले पर नहीं पहुँच सकी और अहिंसक गाँधीवादी आन्दोलन पर ध्यान नहीं दे रही है जिस  गाँधी की नीतियों के आधार पर सरकार चलाने का दावा करती है और उनपर अपना सर्वोच्च अधिकार समझती है,  वो आम आदमी या आम मुसलमानों का कैसे भला करेगी ये समझ से परे है।
अगर सरकार शांतिपूर्ण और अहिंसक आन्दोलन की इस तरह उपेक्षा कर रही है तो आखिर वो किस मुंह से कश्मीरी चरमपंथियों, नक्सलियों और पूर्वोत्तर के अलगाववादियों को हथियार छोड़ने और वार्ता की मेज पर आने को कह रही है, इस तरह के व्यवहार से तो उनमे भी यही सन्देश जा रहा है की उनका हिंसक रास्ता ही सही है, और भारत सरकार से वार्ता करने से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला, जो ना तो भारत के लिए शुभसंकेत है ना भारत सरकार और लोकतंत्र के लिए ही, अतः हम सब को सरकार से  अनुरोध करना चाहिए की वो अब देर ना करके तुरंत “जन लोकपाल बिल” पारित करे जिससे दुनिया में एक अच्छा सन्देश जाये की भारत एक परिपक्व लोकतंत्र है और यहाँ पर अहिंसा के बल पर ही अपनी मांग रखी और मनवाई जा सकती है, इस प्रकार वो हिंसक आन्दोलन चलाने वालों को एक सन्देश भी दे सकती है।

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कविता : रामजन्‍मभूमि



 
थे राम अयोध्‍या के राजा ये सारा विश्‍व जानता है।
पर आज उन्‍हें अपने ही घर तम्‍बू में रहना पड़ता है।।
अल्‍लामा इकबाल ने उनको पैगम्‍बर बतलाया है।
उनसा मर्यादा पुरुषोत्तम न पृथ्‍वी पर फिर आया है।।
फिर भी इस सेकुलर भारत में राम नाम अभिशाप हुआ।
मंदिर बनवाना बहुत दूर पूजा करना भी पाप हुआ।।
90 करोड़ हिंदू समाज इससे कुंठित रहते हैं।
उनकी पीड़ा को समझे जो उसे राष्‍ट्रविरोधी कहते हैं।।
हिंदू उदारता का मतलब कमजोरी समझी जाती है।
हिंद में ही हिंदू दुर्गति पर भारत माता रोती है।।
हे लोकतंत्र के हत्‍यारों सेकुलर का मतलब पहचानो।
मंदिर कहना यदि बुरी बात तो राम का घर ही बनने दो।
गृह निर्माण योजना तो सरकार ने ही चलवाई है।
तो राम का घर बनवाने में आखिर कैसी कठिनाई है।।
हे हिंदुस्‍तान के मुसलमान बाबर तुगलक को बिसरावो।
यदि इस मिट्टी में जन्‍म लिया तो सदा इसी के गुण गावो।।
भाई-भाई में प्‍यार बढ़े ये पहल तुम्‍हें करनी होगी।
है अवध हिन्दुवों का मक्का वो जन्मभूमि देनी होगी
वरना ये रक्‍पात यूं ही सदियों तक चलता जायेगा।
आपस की मारा काटी में बस मजा पड़ोसी पायेगा।।
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अन्ना जी अनशन तोड़ो




अन्ना जी अनशन तोड़ो
अब नहीं देर हो जाएगी ।
अगर हुआ कुछ तुम्हे
तो भारत में बर्बादी आएगी ।।
अलख जगाई है जो तुमने
आगे उसे बढाना है ।
मर जाएँ या मिट जाएँ
जन लोकपाल बिल लाना है ।।
चमड़ी मोटी बहुत हो गयी
है काले अंग्रेजों  की  ।
इनको दिखलानी है ताकत
भारत माँ के बेटों की  ।।
भ्रष्टाचारी सरकारें अब
सत्ता फिर न पाएंगी ।
अन्ना जी अनशन तोड़ो अब …………..
७४ के पार उम्र है
फिर भी जोश जवानों का ।
कैसे किया भरोसा ही
इन संसद के हैवानो का ।।
सवा अरब भारत की जनता
कहती है वो अन्ना है ।
पर भारत के संविधान को
जिसने किया निकम्मा है ।।
उससे ही आशाएं करके
जनता धोखा खाएगी ।
अन्ना जी अनशन तोड़ो अब …………..
गाँधी जी आदर्शों से
अपनी जान गंवाना है ।
लोहे की दीवारों से बस
अपना सिर टकराना है ।।
त्याग समर्पण से भारत को
कभी ना कुछ मिल पाया है ।
बिना महाभारत के कोई
धर्मराज ना आया है ।।
सोने की चिड़िया गिरवी है
वापस ना आ पायेगी ।
अन्ना जी अनशन तोड़ो अब …………..

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पिक्चर अभी बाकी है…..(कविता)



जनतंत्र की है जीत, मगर फिर भी सम्भलना ।
सरकार   बदल   देगी,   इसे  हार   में   वरना ।।
गफलत   अगर   हुयी,  तो   पछताना   पड़ेगा ।
इस   भ्रष्टतंत्र   को,    सिर    झुकाना    पड़ेगा ।।
तुडवाया था इन्होने ही,  पिछला  भी अनशन ।
पर  देते  रहे फिर भी,  बारह  दिन तक टेंशन ।।
सड़कों पर देखी भीड़, तो लाजिम हुआ डरना ।
जनतंत्र की है जीत, मगर फिर भी …………………..
जब भ्रष्ट  हो सरकार, और रिमोट हो  पी एम ।
दिखलाना पड़ेगा तब, जनता को ही दमखम ।।
कोशिश तो हुयी खूब, की  जनता को बाँट  दें ।
आर एस एस के नाम पर,  अन्ना  को डांट दें ।।
देशभक्तों   के   आगे,  पड़ा  पीछे  इन्हें  हटना ।
जनतंत्र की है जीत, मगर फिर भी …………………..
क्या खूब थी रणनीति, अजब सा था प्रबंधन ।
अन्ना  तुमारी  जय, और  है  टीम का वंदन ।।
आगे की  योजना भी,  अभी से  ही   बना लो ।
यदि थे कोई  नाराज, तो उनको भी मना लो ।।
पर    अग्निवेश    जैसे,   गद्दारों    से   बचना ।
जनतंत्र की है जीत, मगर फिर भी …………………..
रास्ते    अभी    भी,     आसान     नहीं    हैं ।
नेतावों    में     भी,     शैतान       कई      हैं ।।
स्वामी  रामदेव,   इनकी  बातों   में   आये ।
बदले  में  पुलिश  की,  बस  लाठियां खाये ।।
खलबली   है   इनमे,  ये   ध्यान  में रखना ।
जनतंत्र की है जीत, मगर फिर भी …………………..

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